- क्या गाँधीजी भगतसिंह को बचा सकते थे?
आज के दौर का युवा ना कभी लायब्रेरी में जाकर इतिहास का एक भी पन्ना पढ़ता है , ना ही कभी कोई तथ्यों को सच्चाई की कसौटी पर खंगालता है । बस उसके मोबाइल में जो झूठ किसी ने पेश किया होता है वो उसी झूठ को सच मानकर महाज्ञानी बन जाता है ।
आज के ज़माने में सोशल मिडिया सबसे बड़ा झू्ठ फैलाने का अड्डा है ! ! ! और हैरत की बात यह है की ज़्यादातर गाँँधीजी के विषय पर झू्ठ फैलाने, उन्हें गालियाँ देने का काम वो लोग करते हैं जो अपने आपको सबसे बड़े धार्मिक होने का दावा करते है ! ! !
आज के ज़माने में सोशल मिडिया सबसे बड़ा झू्ठ फैलाने का अड्डा है ! ! ! और हैरत की बात यह है की ज़्यादातर गाँँधीजी के विषय पर झू्ठ फैलाने, उन्हें गालियाँ देने का काम वो लोग करते हैं जो अपने आपको सबसे बड़े धार्मिक होने का दावा करते है ! ! !
जो व्यक्ति इंसान तो क्या चींटी मारने को भी महापाप समझता हो , उस व्यक्ति पर भारत के कुछ लोग भगत सिंह और उनके साथियों को मरवाने का आरोप लगा रहे हैं!
खूनी , चोर , लूटेरे के भी फांसी के पक्ष में गाँधीजी कभी नही रहे , ऐसे व्यक्ति पर भगत सिंह जैसे देशभक्त को नही बचाने का आरोप ? !
बापू पर ऐसे घटिया आरोप लगाने वाले किस विचारधारा के हैं ? वो कहने की आवश्कता नहीं ।
खूनी , चोर , लूटेरे के भी फांसी के पक्ष में गाँधीजी कभी नही रहे , ऐसे व्यक्ति पर भगत सिंह जैसे देशभक्त को नही बचाने का आरोप ? !
बापू पर ऐसे घटिया आरोप लगाने वाले किस विचारधारा के हैं ? वो कहने की आवश्कता नहीं ।
भगत सिंह और उनके साथियो पर SSP जे.पी सांडर्स की हत्या का मुकदमा चल रहा था । सांडर्स हत्या कांड में भगत सिंह के अपने ही साथी ” जय गोपाल और हंसराज वोहरा ने ” सरकारी गवाह बनकर अदालत में गवाही दी थी !
( जब एसेम्बली में बम फोड़ा गया था तब भी भगतसिंह के खिलाफ उनके अपने आदमी ने ही गवाही दी थी । ) सांडर्स हत्या में अंग्रेजो की दिखावे की अदालत ने भगत सिंह , सुख देव और राजगुरु जी को 24 मार्च 1931 सुबह 7 बजे फांसी देने का हुकुम सुनाया था ।
( जब एसेम्बली में बम फोड़ा गया था तब भी भगतसिंह के खिलाफ उनके अपने आदमी ने ही गवाही दी थी । ) सांडर्स हत्या में अंग्रेजो की दिखावे की अदालत ने भगत सिंह , सुख देव और राजगुरु जी को 24 मार्च 1931 सुबह 7 बजे फांसी देने का हुकुम सुनाया था ।
‘भगत सिंह की फांसी रुक सकती थी यदि गाँँधी चाहते तो ‘, इस विचार को फैलाने वालों को शायद यह नही मालूम की महात्मा गाँधी ने खुद का बचाव भी कभी नही किया , अपने जीवनकाल में जब जब गाँँधीजी को सज़ा सुनाई गई , उन्होंने हमेशा अंग्रेजी हुकुमत से यही कहा की — ‘ हाँ , मैंने ये जुर्म किया है . . . अपने देशवासियों को जगाया है ।’ यही नही , चौरी – चौरा कांड में 23 पुलिसकर्मी ( ज़्यादातर भारतीय मूल के ) मारे गये थे तब वो हत्याकांड की सारी ज़िम्मेदारी गाँधीजी ने अपने आप पर लेते हुए कोर्ट में यह मांग की कि ‘ मुझे कड़ी से कड़ी सज़ा दी जाए । ‘
( जो व्यक्ति हमारे विचारों का नही होता , उसका बचाव हम सार्वजनिक स्थानों पर तो क्या उनका बचाव हम सोशल मीडिया पर भी नही करते , मगर फिर भी गाँँधीजी ने भगत सिंह का बचाव किया । )
क्रांतिकारियों में और गाँधीजी में हिंसा और अहिंसा के मुद्दे पर मतभेद था , मनभेद तो लेषमात्र भी न था ।
गाँँधीजी की सोच यह थी की क्रांतिकारी गतिविधि का सामना करने के लिए अंग्रेज़ सरकार फौजी खर्च बढ़ाती है , जो हम गरीबों के पैसों से वसूला जाता है । इतनी सोच भिन्न होने के बावजूद गाँँधीजी क्रांतिकारियों को बचाने आगे आए ।
( जो व्यक्ति हमारे विचारों का नही होता , उसका बचाव हम सार्वजनिक स्थानों पर तो क्या उनका बचाव हम सोशल मीडिया पर भी नही करते , मगर फिर भी गाँँधीजी ने भगत सिंह का बचाव किया । )
क्रांतिकारियों में और गाँधीजी में हिंसा और अहिंसा के मुद्दे पर मतभेद था , मनभेद तो लेषमात्र भी न था ।
गाँँधीजी की सोच यह थी की क्रांतिकारी गतिविधि का सामना करने के लिए अंग्रेज़ सरकार फौजी खर्च बढ़ाती है , जो हम गरीबों के पैसों से वसूला जाता है । इतनी सोच भिन्न होने के बावजूद गाँँधीजी क्रांतिकारियों को बचाने आगे आए ।
* सांडर्स हत्या और भगत सिंह की फांसी की परिस्थितियाँँ कैसे निर्मित हुई उस पर नज़र डालते है ।
1928 में अंग्रेजों ने जॉन सायमन को भारतीय स्थिति पर रिपोर्ट देने और राजनितिक सुधारों की सिफारिश के लिए नियुक्त किया । जिसे सायमन कमिशन से जाना जाता है । सायमन कमिशन भारत के भाग्य का फैसला करने वाला था , परंतु आश्चर्य तो इस बात का था की , इस कमिशन में एक भी भारतीय नहीं था ।
महात्मा गाँँधी ने निश्चय कर लिया , सायमन की इतनी अधिक उपेक्षा कर देनी है कि मानो हमने उनके अस्तित्व को ही नकार दिया हो ।
गाँधीजी की घोषणा का असर ये हुआ की पूरे भारत में जॉन सायमन को विरोध का सामना करना पड़ा । जगह -जगह काले झंडे दिखाए जा रहे थे । ''सायमन गो बेक'', "सायमन वापस जाओ'', के गगन भेदी नारे लग रहे थे । गाँँधीजी का बहिष्कार इतना बुलंद था की उन्होंने कमिशन का कभी नाम तक अपनी ज़ुबान से नही लिया ।
इस में ये बात तो निश्चित थी की ये विरोध पूरे अहिंसक तरीके से हो रहा था । अंग्रेजों की लाठियों की बौछार से पं . नेहरु जी लखनऊ में बुरी तरह घायल हो गए । लाहोर में बुज़ुर्ग लाला लाजपात राय पर अंग्रेजों ने इतनी बेरहमी से लाठियाँ बरसाई की लालाजी वहीं पर शहीद हो गए । ये नज़ारा भगत सिंह से देखा नही गया । भगत सिंह ने लालाजी के चरणों को चुमते हुए लाठी बरसाने वाले जेम्स स्कोर्ट को मारने का निर्णय किया ।
क्रांतिकारियों ने स्कोर्ट को मारने की रणनीति बनाई । स्कोर्ट पुलिस स्टेशन से बहार आए, उस बात की जानकारी देने का काम जयगोपाल को दिया गया । मगर पुलिस स्टेशन से स्कोर्ट की जगह सांडर्स आया और जयगोपाल ने सांडर्स को पहचानने में गलती की और गलत सिग्नल दे दिया । भगतसिंह कुछ समझते उसके पहले ही राजगुरु ने अपनी पिस्तौल से गोली चला दी । ये देखकर भगतसिंह ने भी सांडर्स पर गोलियों की बौछार कर दी । इस तरह गलती से स्कोर्ट की जगह सांडर्स मारा गया ।
ये गलती क्रांतिकारियों को मन ही मन खाए जा रही थी , क्योंकि स्कोर्ट को मारकर लालाजी का बदला लेने वाला बेनर क्रांतिकारियों ने पहले ही बनाकर रखा था । सांडर्स हत्याकांड के बाद अंग्रेजों को चकमा देकर भगत सिंह , चन्द्रशेखर आज़ाद और राजगुरु लाहोर से कलकत्ता आने में सफल रहे । उस घटना के बाद क्रांतिकारियों ने एक साल तक कोई गतिविधि नही की । अंग्रेज क्रांतिकारियों को हत्यारा कह रही थी । अपने माथे पर लगा हत्यारे का लेबल क्रांतिकारियों को बर्दाश्त नही हो रहा था । वे हत्यारे नही बल्कि जनता को जागरूक करने वाले क्रांतिकारी हैं , अपनी यह बात जनता तक पहुंचाने के लिए भगत सिंह ने असेम्बली में बम फेंका । यहाँ गौर करने वाली बात यह है कि , जान लेने और जान देने वाले नवयुवक इस बार किसी की जान नहीं जाए, ऐसी परवाह कर रहे थे । भगत सिंह ने जानबुझकर बेअसर ( अहिंसक ) बम बनाया , वो भी असेम्बली में रिक्त स्थान पर फेंका जहाँ पर कोई मौजूद नहीं था । जबकि लालाजी की मौत का कारण सायमन उसी असेम्बली में मौजूद था । भगत सिंह चाहते तो बम सायमन पर फेंक कर लालाजी की मौत का बदला ले सकते थे , फिर भी भगत सिंह ने इस बार मौका होने के बावजूद अहिंसक तरीका अपनाया । चाहे जो हो , भले ही क्रांतिकारी गाँधी की अहिंसा को उस हद तक नही पसंद करते थे , पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि अहिंसा अपना काम धीरे-धीरे कर रही थी । जेल में हो रहे भारतीय कैदियों से भेदभाव के खिलाफ भगतसिंह ने जो रास्ता चुना, वो भी संपूर्ण तरीके से अहिंसक ही था , और वो था गाँँधीजी का सबसे बड़ा हथियार, 'अनशन' । जेल में मिल रही असुविधा के विषय पर भगत सिंह ने बहुत सौम्य रूप में पत्र लिखा था ।
जब अनशन लंबा चला तो एक साथी की मौत हो गई तब , काँग्रेस की विनती का मान देकर भगत सिंह ने अपना अनशन छोड़ा था ।
महात्मा गाँँधी ने निश्चय कर लिया , सायमन की इतनी अधिक उपेक्षा कर देनी है कि मानो हमने उनके अस्तित्व को ही नकार दिया हो ।
गाँधीजी की घोषणा का असर ये हुआ की पूरे भारत में जॉन सायमन को विरोध का सामना करना पड़ा । जगह -जगह काले झंडे दिखाए जा रहे थे । ''सायमन गो बेक'', "सायमन वापस जाओ'', के गगन भेदी नारे लग रहे थे । गाँँधीजी का बहिष्कार इतना बुलंद था की उन्होंने कमिशन का कभी नाम तक अपनी ज़ुबान से नही लिया ।
इस में ये बात तो निश्चित थी की ये विरोध पूरे अहिंसक तरीके से हो रहा था । अंग्रेजों की लाठियों की बौछार से पं . नेहरु जी लखनऊ में बुरी तरह घायल हो गए । लाहोर में बुज़ुर्ग लाला लाजपात राय पर अंग्रेजों ने इतनी बेरहमी से लाठियाँ बरसाई की लालाजी वहीं पर शहीद हो गए । ये नज़ारा भगत सिंह से देखा नही गया । भगत सिंह ने लालाजी के चरणों को चुमते हुए लाठी बरसाने वाले जेम्स स्कोर्ट को मारने का निर्णय किया ।
क्रांतिकारियों ने स्कोर्ट को मारने की रणनीति बनाई । स्कोर्ट पुलिस स्टेशन से बहार आए, उस बात की जानकारी देने का काम जयगोपाल को दिया गया । मगर पुलिस स्टेशन से स्कोर्ट की जगह सांडर्स आया और जयगोपाल ने सांडर्स को पहचानने में गलती की और गलत सिग्नल दे दिया । भगतसिंह कुछ समझते उसके पहले ही राजगुरु ने अपनी पिस्तौल से गोली चला दी । ये देखकर भगतसिंह ने भी सांडर्स पर गोलियों की बौछार कर दी । इस तरह गलती से स्कोर्ट की जगह सांडर्स मारा गया ।
ये गलती क्रांतिकारियों को मन ही मन खाए जा रही थी , क्योंकि स्कोर्ट को मारकर लालाजी का बदला लेने वाला बेनर क्रांतिकारियों ने पहले ही बनाकर रखा था । सांडर्स हत्याकांड के बाद अंग्रेजों को चकमा देकर भगत सिंह , चन्द्रशेखर आज़ाद और राजगुरु लाहोर से कलकत्ता आने में सफल रहे । उस घटना के बाद क्रांतिकारियों ने एक साल तक कोई गतिविधि नही की । अंग्रेज क्रांतिकारियों को हत्यारा कह रही थी । अपने माथे पर लगा हत्यारे का लेबल क्रांतिकारियों को बर्दाश्त नही हो रहा था । वे हत्यारे नही बल्कि जनता को जागरूक करने वाले क्रांतिकारी हैं , अपनी यह बात जनता तक पहुंचाने के लिए भगत सिंह ने असेम्बली में बम फेंका । यहाँ गौर करने वाली बात यह है कि , जान लेने और जान देने वाले नवयुवक इस बार किसी की जान नहीं जाए, ऐसी परवाह कर रहे थे । भगत सिंह ने जानबुझकर बेअसर ( अहिंसक ) बम बनाया , वो भी असेम्बली में रिक्त स्थान पर फेंका जहाँ पर कोई मौजूद नहीं था । जबकि लालाजी की मौत का कारण सायमन उसी असेम्बली में मौजूद था । भगत सिंह चाहते तो बम सायमन पर फेंक कर लालाजी की मौत का बदला ले सकते थे , फिर भी भगत सिंह ने इस बार मौका होने के बावजूद अहिंसक तरीका अपनाया । चाहे जो हो , भले ही क्रांतिकारी गाँधी की अहिंसा को उस हद तक नही पसंद करते थे , पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि अहिंसा अपना काम धीरे-धीरे कर रही थी । जेल में हो रहे भारतीय कैदियों से भेदभाव के खिलाफ भगतसिंह ने जो रास्ता चुना, वो भी संपूर्ण तरीके से अहिंसक ही था , और वो था गाँँधीजी का सबसे बड़ा हथियार, 'अनशन' । जेल में मिल रही असुविधा के विषय पर भगत सिंह ने बहुत सौम्य रूप में पत्र लिखा था ।
जब अनशन लंबा चला तो एक साथी की मौत हो गई तब , काँग्रेस की विनती का मान देकर भगत सिंह ने अपना अनशन छोड़ा था ।
गाँँधीजी के करीबी मित्रों में से एक प्राणजीवन मेहता भगत सिंह जी को जेल में मिलने गए तब भगत सिंह जी ने प्राणजीवन मेहता , पंडित नेहरुजी और नेताजी सुभाषचंद्र का विशेष तौर से धन्यवाद माना , क्योंकि नेताजी और नेहरु जी शुरुआत से ही भगत सिंह जी के केस में रुची ले रहे थे | नेहरुजी ने ही अंग्रेज़ सरकार से भगत सिंह को राजकीय कैदी घोषित करने की मांग की थी |
भगत सिंह , सुखदेव , राजगुरु को 7 अक्टूम्बर 1930 के दिन फांसी की सज़ा सुनाई गई थी । मुकदमा 11 फरवरी 1931 तक चला , लेकिन फैसले में कोई बदलाव नही आया ।
दरअसल 1930 में गाँँधीजी ने नमक सत्याग्रह आंदोलन किया था । उस अहिंसक आंदोलन की दुनियाभर में प्रसिद्धि मिली , जिससे अंग्रेजी हुकुमत की काफी किरकिरी हुई । अंग्रेजों ने गुस्से में आकर काँग्रेस पार्टी को असंवैधानिक पार्टी घोषित कर दिया । काँग्रेस के सभी दफ्तरों में छापे मारे गये , गाँँधीजी समेत कई बड़े काँग्रेसी नेताओं को जेल में डाला गया । आजादी की लड़ाई लड़ने वाली प्रमुख काँग्रेस पार्टी को अपना अस्तित्व बचाना मुश्किल हो गया था ।
गाँधीजी जब जेल में थे तब अदालत भगत सिंह को फाँँसी का फैसला सुना चुकी थी । फैसले पर वायसराय की अंतिम मोहर लगनी बाकी थी ।
गाँँधीजी जैसे ही 26 जनवरी 1931 में जेल से रिहा हुए उन पर भगत सिंह की फाँँसी रुकवाने का दबाव बन गया ।
गाँधीजी जब जेल में थे तब अदालत भगत सिंह को फाँँसी का फैसला सुना चुकी थी । फैसले पर वायसराय की अंतिम मोहर लगनी बाकी थी ।
गाँँधीजी जैसे ही 26 जनवरी 1931 में जेल से रिहा हुए उन पर भगत सिंह की फाँँसी रुकवाने का दबाव बन गया ।
17 फरवरी और 5 मार्च 1931 के दौरान गाँधीजी का तत्कालीन वायसराय इरविन के साथ ऐतिहासिक करार चल रहा था । उस करार को " गाँँधी – इरविन समझौता " से भी जाना जाता है ।
उस समझौते के मुताबिक गाँँधीजी ने अंग्रेजों की कुछ शर्तें मानकर भारत के 90 हज़ार से ज़्यादा कैदियों को जेल से छुड़वाया था ।
सभी देश प्रेमी ये चाहते थे की गाँँधीजी अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके भगत सिंह , सुखदेव , राजगुरु को बचाए ।
उस समझौते के मुताबिक गाँँधीजी ने अंग्रेजों की कुछ शर्तें मानकर भारत के 90 हज़ार से ज़्यादा कैदियों को जेल से छुड़वाया था ।
सभी देश प्रेमी ये चाहते थे की गाँँधीजी अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके भगत सिंह , सुखदेव , राजगुरु को बचाए ।
समझौते में हिंसा के आरोपी कैदियों को छोड़ने के लिए अंग्रेज़ राज़ी नही थे । भगत सिंह की फाँँसी पर वायसराय इरविन की मोहर लगनी बाँँकी थी ।
वैसे भी गाँँधीजी फाँँसीवाद में मानते नही थे । इसलिए गाँँधीजी ने वायसराय इरविन को फाँँसी को उम्र कैद में बदलने हेतु 18 फरवरी , 19 मार्च और 23 मार्च के दिन चिट्ठियाँँ लिखी थी | गाँँधीजी ने वायसराय के सामने अपनी बात रखते हुए कहा की यदि आप फाँँसी के फैसले को सज़ा में परिवर्तित करते है तो आप क्रांतिपक्ष को बहुत हद तक शांत कर सकते हैं । ये रोज़ रोज़ का खूनखराबा रुक सकता है । वायसराय ने कहा ये मुमकिन नही, भगतसिंह ने हमारे पुलिस ऑफिसर की हत्या की है । इस पर गाँँधीजी ने कहा - "जान के बदले जान लेना, हमे धर्म नही सिखाता ।" वैसे भी फाँँसी उस व्यक्ति को सुधरने का एक मौका नही देती !
भगत सिंह ने जो किया वो अपनी मानसिक अस्थिरता के कारण किया । वैसे भी कानून कहता है , मानसिक अस्थिरता वाले व्यक्ति को फाँँसी की नही इलाज की ज़रूरत होती है ।
गाँँधीजी ने ईसाई धर्म और प्रभु इशु का वास्ता देते हुए कहा की , यदि बच्चों ने अपनी नासमझी में कोई अपराध किया भी है तो , जान लेने का हक केवल ईश्वर को है । यही बात प्रभु इशु भी मानते थे ।
वायसराय ने फाँँसी पर नरमी अपनाने का गाँँधीजी को आश्वासन दिया था ।
समझौते के दौरान ये तय हुआ था की , जेल से निकलने के बाद कोई भी क्रांतिकारी या सत्याग्रही ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध काम नही करेगा । सरकार विरुद्ध किसी भी गतिविधि में शामिल नहीं होगा ।
( किन्तु गाँँधी को बदनाम करने हेतु ” गाँँधी – इरविन समझौते ” को ” लिजेेंड ऑफ़ भगत सिंह ” फिल्म में बहुत ही घटिया तरीके से दर्शाया गया ! ! ! )
उस वक्त के मशहूर लेखक वीर सावरकर ने भी अपने किसी भी पत्रक में भगत सिंह की फाँँसी रद्द करवाने की बात नही लिखी . . . . उल्टा तत्कालीन संघ संचालक ” केशव बलीराम हेगड़ेवार जी ” ने अपने मुख पत्र में फरमान जारी किया की गाँधी के सत्याग्रह से सभी को अलिप्त ( दूर ) रहना चाहिए । हेगड़ेवार ने तो यहाँ तक कह दिया था की नौजवानों को भगत सिंह जैसे छिछोरे देशभक्त से दूर ही रहना चाहिए ।
1920 में ब्रिटिश सरकार की ऐसी ही कुछ शर्तेंं मनवाकर लोक मान्य तिलक , वल्लभ भाई के बड़े भाई विठ्ठल भाई पटेल और गाँधीजी ने वीर सावरकर की कालापानी की सज़ा रद्द करवाने की मांग की थी । और यही अंग्रेजों की शर्तें सावरकर ने मान लीं और 1921 कालापानी तथा 1924 में वे जेल से रिहा कर दिए गए ।
वैसे भी गाँँधीजी फाँँसीवाद में मानते नही थे । इसलिए गाँँधीजी ने वायसराय इरविन को फाँँसी को उम्र कैद में बदलने हेतु 18 फरवरी , 19 मार्च और 23 मार्च के दिन चिट्ठियाँँ लिखी थी | गाँँधीजी ने वायसराय के सामने अपनी बात रखते हुए कहा की यदि आप फाँँसी के फैसले को सज़ा में परिवर्तित करते है तो आप क्रांतिपक्ष को बहुत हद तक शांत कर सकते हैं । ये रोज़ रोज़ का खूनखराबा रुक सकता है । वायसराय ने कहा ये मुमकिन नही, भगतसिंह ने हमारे पुलिस ऑफिसर की हत्या की है । इस पर गाँँधीजी ने कहा - "जान के बदले जान लेना, हमे धर्म नही सिखाता ।" वैसे भी फाँँसी उस व्यक्ति को सुधरने का एक मौका नही देती !
भगत सिंह ने जो किया वो अपनी मानसिक अस्थिरता के कारण किया । वैसे भी कानून कहता है , मानसिक अस्थिरता वाले व्यक्ति को फाँँसी की नही इलाज की ज़रूरत होती है ।
गाँँधीजी ने ईसाई धर्म और प्रभु इशु का वास्ता देते हुए कहा की , यदि बच्चों ने अपनी नासमझी में कोई अपराध किया भी है तो , जान लेने का हक केवल ईश्वर को है । यही बात प्रभु इशु भी मानते थे ।
वायसराय ने फाँँसी पर नरमी अपनाने का गाँँधीजी को आश्वासन दिया था ।
समझौते के दौरान ये तय हुआ था की , जेल से निकलने के बाद कोई भी क्रांतिकारी या सत्याग्रही ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध काम नही करेगा । सरकार विरुद्ध किसी भी गतिविधि में शामिल नहीं होगा ।
( किन्तु गाँँधी को बदनाम करने हेतु ” गाँँधी – इरविन समझौते ” को ” लिजेेंड ऑफ़ भगत सिंह ” फिल्म में बहुत ही घटिया तरीके से दर्शाया गया ! ! ! )
उस वक्त के मशहूर लेखक वीर सावरकर ने भी अपने किसी भी पत्रक में भगत सिंह की फाँँसी रद्द करवाने की बात नही लिखी . . . . उल्टा तत्कालीन संघ संचालक ” केशव बलीराम हेगड़ेवार जी ” ने अपने मुख पत्र में फरमान जारी किया की गाँधी के सत्याग्रह से सभी को अलिप्त ( दूर ) रहना चाहिए । हेगड़ेवार ने तो यहाँ तक कह दिया था की नौजवानों को भगत सिंह जैसे छिछोरे देशभक्त से दूर ही रहना चाहिए ।
1920 में ब्रिटिश सरकार की ऐसी ही कुछ शर्तेंं मनवाकर लोक मान्य तिलक , वल्लभ भाई के बड़े भाई विठ्ठल भाई पटेल और गाँधीजी ने वीर सावरकर की कालापानी की सज़ा रद्द करवाने की मांग की थी । और यही अंग्रेजों की शर्तें सावरकर ने मान लीं और 1921 कालापानी तथा 1924 में वे जेल से रिहा कर दिए गए ।
भगत सिंह की फाँँसी रद्द होने की सुगबुगाहट को फैलते ही Civil Servicer Officers में रोष फैल गया । तत्कालीन पंजाब के गवर्नर केडर ने गवर्नर पद से इस्तीफा देने की धमकी ब्रिटिश सरकार को दे दी !
ब्रिटिश सरकार के गणित के मुताबिक यदि गवर्नर केडर अपने पद से इस्तीफा देता है तो , उनके बहुत सारे सहयोगी जो म्यांमार , अफगानिस्तान , अरब देशों में ब्रिटिश सरकार की नौकरियाँ करते है वे सामूहिक तौर पर इस्तीफा दे सकते है । वे सारे ब्रिटिश युवक स्वदेश लौट सकते है । नए युवकों को ब्रिटेन से नौकरी पर लाना मुश्किल हो सकता है । गाँँधीजी को इस बात की भनक लगते ही 22 मार्च को वायसराय इरविन से मिलने पहुँच गए इरविन को अपना आश्वासन याद दिलाया । 23 मार्च को गाँँधीजी ने वायसराय को चिठ्ठी भी लिखी थी , चिठ्ठी में लिखा था फाँँसी के फैसले को अनिश्चित काल तक अमल में न लाया जाय । कृपया भगत सिंह और उनके साथियों को जीवन का एक मौका दीजिए । ( ये बात लॉर्ड इरविन ने अपनी डायरी में लिखी थी )
अंग्रेज़ सरकार गाँँधीजी की हर बात माने उसके लिए वो बाध्य नही थी । वैसे भी अंग्रेज़ सरकार भगत सिंह की फाँँसी रद्द करवाकर गाँधी को जनता की नज़र में हीरो क्यों बनाती ? वो तो आए ही थे देश में फूट डालकर राज करने के लिए ! और उन्होंने यही किया। भगत सिंह और उनके साथियों को तय तारीख के पहले , यानि की 24 मार्च के पहले 23 मार्च शाम 7:33 को ही फांसी दे दी . . . . ।
सभी मुद्दे पर अपना नफा – नुकसान देखने वाली अंग्रेज़ सरकार ने भगत सिंह की फाँँसी से अपना दो प्रकार का फायदा कर लिया । एक भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी की जान ले ली और दूसरा गाँँधी जैसे सत्यवादी को जनता की नज़र में गिराने की कोशिश की ।
सभी मुद्दे पर अपना नफा – नुकसान देखने वाली अंग्रेज़ सरकार ने भगत सिंह की फाँँसी से अपना दो प्रकार का फायदा कर लिया । एक भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी की जान ले ली और दूसरा गाँँधी जैसे सत्यवादी को जनता की नज़र में गिराने की कोशिश की ।
अंग्रेज़ की कूटनीति का परिणाम यह आया की आज भी कुछ लोग भगत सिंह जी की फाँँसी को लेकर के गाँँधीजी को दोषी मान रहे हैं . . . .मनघड़ंत आरोप लगाकर गांँधीजी को बदनाम कर रहे है . . . . ( आरोप लगाने वाले उन लोगों को सोचना चाहिए की गाँँधीजी ने अंग्रेजों से कहा था कृपया आप भारत छोड़कर चले जाइये ; क्या उसी वक्त गाँँधीजी की बात मानकर अंग्रेज़ भारत छोड़कर चले गये थे ? ? ? )
किन्तु सच तो यह है की , भगत सिंह स्वयं के लिए किसी भी प्रकार की क्षमा याचना नही चाहते थे । उन्हें दृढ़ विश्वास था की , उनकी शहीदी देश के हित में होंगी । भगत सिंह जी स्वयं जानते थे की जिस रास्ते पर वे चल रहे है उनका अंजाम फांसी ही है । इसीलिए वे किसीसे भी अपने जीवन की आस नही रखते थे ।
भगत सिंह के पिता किशन सिंह जी ने फाँँसी रद्द करने की ब्रिटिश सरकार से गुहार लगाई तो , भगत सिंह अपने पिता पर गुस्सा हो गए । उन्होंने अपने पिता को यहाँँ तक कह दिया की , आपने मेरी पीठ में छुरा घोपा है ।
अपने अंतिम दिनों में भगत सिंह ने अपने साथी कैदियों से कहा था , मुझे फाँँसी के फंदे तक जाने के लिए कोई नही रोक सकता ।
दूसरा सच यह है की , भगत सिंह के हिंसा के मार्ग का समर्थन खुद उनके पिता किशनसिंह जी भी नही करते थे । किशनसिंह जी भगत सिंह को समझाते थे की हमे गाँधीजी के अहिंसा मार्ग से अंग्रेजों से आजादी लेनी चाहिए । भगत सिंह ने अपने पिता से प्रतिउत्तर में ये कहा की , गाँँधीजी महान हैं उसमे कोई दोराय नहीं , लेकिन अंग्रेज़ जैसे ज़ालिमों से अहिंसा से नही लड़ा जा सकता ।
किन्तु सच तो यह है की , भगत सिंह स्वयं के लिए किसी भी प्रकार की क्षमा याचना नही चाहते थे । उन्हें दृढ़ विश्वास था की , उनकी शहीदी देश के हित में होंगी । भगत सिंह जी स्वयं जानते थे की जिस रास्ते पर वे चल रहे है उनका अंजाम फांसी ही है । इसीलिए वे किसीसे भी अपने जीवन की आस नही रखते थे ।
भगत सिंह के पिता किशन सिंह जी ने फाँँसी रद्द करने की ब्रिटिश सरकार से गुहार लगाई तो , भगत सिंह अपने पिता पर गुस्सा हो गए । उन्होंने अपने पिता को यहाँँ तक कह दिया की , आपने मेरी पीठ में छुरा घोपा है ।
अपने अंतिम दिनों में भगत सिंह ने अपने साथी कैदियों से कहा था , मुझे फाँँसी के फंदे तक जाने के लिए कोई नही रोक सकता ।
दूसरा सच यह है की , भगत सिंह के हिंसा के मार्ग का समर्थन खुद उनके पिता किशनसिंह जी भी नही करते थे । किशनसिंह जी भगत सिंह को समझाते थे की हमे गाँधीजी के अहिंसा मार्ग से अंग्रेजों से आजादी लेनी चाहिए । भगत सिंह ने अपने पिता से प्रतिउत्तर में ये कहा की , गाँँधीजी महान हैं उसमे कोई दोराय नहीं , लेकिन अंग्रेज़ जैसे ज़ालिमों से अहिंसा से नही लड़ा जा सकता ।
लाला लाजपत राय कट्टर हिन्दू वादी थे । भगत सिंह रूस के नेता " लेनिन और कार्लमार्क्स '' को अपना आदर्श मानते थे । भगत सिंह इश्वरी शक्ति में नही मानते थे । वे नास्तिक थे । इस बात को लेकर भगत सिंह के खुद अपने साथियों एवं लाला लाजपत राय के बीच मतभेद थे । भगत सिंह ने अपने अंतिम दिनो में ” मैं नास्तिक क्यों हूँ ” नामक निबंध लिखा था । लालाजी ने भगत सिंह को रुसी एजेंट तक कह दिया था ।
क्रांतिकारियों की भी सोच लालाजी के प्रति कुछ ठीक नहीं थी , क्रांतिकारियों ने लालाजी को मरा हुआ नेता कह दिया था । लाहोर की गलियों में पर्चे भी बाँँटे थे ।
क्रांतिकारियों की भी सोच लालाजी के प्रति कुछ ठीक नहीं थी , क्रांतिकारियों ने लालाजी को मरा हुआ नेता कह दिया था । लाहोर की गलियों में पर्चे भी बाँँटे थे ।
गाँँधीजी ने कभी किसी क्रांतिकारी को आतंकवादी नही कहा ।
गाँँधीजी ने कभी किसी विदेशी कानून का समर्थन नहीं किया । गाँँधीजी का कोई भी परिवार का सभ्य ” ईस्ट इंडिया कंपनी ” में काम नही करता था ।
जो लोग ईस्ट इंडिया कंपनी में काम करते थे , जिन्होंने कभी आज़ादी के आंदोलन में कभी भाग नहीं लिया , जिन्होंने देश का तिरंगा फाड़ दिया था । उन लोगों को भी गाँँधीजी ने कभी देशद्रोही या देश का गद्दार नही कहा . . . .
जिन लोगों ने गाँँधी के सत्याग्रह में कभी भाग नही लिया , भारत छोड़ो आंदोलन के खिलाफ रहे , आंदोलन की रणनीतियाँँ अंग्रेजों को बताकर आंदोलन नाकामयाब करते रहे । उन्हें भी गाँधीजी ने कभी देशद्रोही या देश का गद्दार नहीं कहा । और आज कुछ पाखंडियों द्वारा इतना बड़ा झूठ फैलाया जाता है की , गाँँधीजी ने क्रांतिकारियों को आतंकवादी कहा था . . . .
जो लोग ईस्ट इंडिया कंपनी में काम करते थे , जिन्होंने कभी आज़ादी के आंदोलन में कभी भाग नहीं लिया , जिन्होंने देश का तिरंगा फाड़ दिया था । उन लोगों को भी गाँँधीजी ने कभी देशद्रोही या देश का गद्दार नही कहा . . . .
जिन लोगों ने गाँँधी के सत्याग्रह में कभी भाग नही लिया , भारत छोड़ो आंदोलन के खिलाफ रहे , आंदोलन की रणनीतियाँँ अंग्रेजों को बताकर आंदोलन नाकामयाब करते रहे । उन्हें भी गाँधीजी ने कभी देशद्रोही या देश का गद्दार नहीं कहा । और आज कुछ पाखंडियों द्वारा इतना बड़ा झूठ फैलाया जाता है की , गाँँधीजी ने क्रांतिकारियों को आतंकवादी कहा था . . . .
यदि गाँधीजी ने किसी को आतंकवादी या देशद्रोही कहा होता तो , आज के वक्त गाँँधीजी द्वारा लगाए गए उन आरोपों से पिंड छुड़ाना मुश्किल होता ! न्यूज़ चैनलों में चर्चा की होड़ लगी होती . . . .
चन्द्रशेखर आज़ाद के ख़ुफ़िया ठिकाने पर सिपाही लाने वाला ना तो वो काँग्रेसी था , ना तो वो गाँँधीवादी था ! वो चन्द्रशेखर आज़ाद का अपना ही आदमी ” वीरभद्र ” था !
भगत सिंह के खिलाफ गवाही देने वाले , ना तो वो काँग्रेसी थे , ना तो वो गाँँधीवादी थे । वे दोनो भगत सिंह के क्रांतिकारी जोड़ीदार ” जय गोपाल और घोष बाबू ” थे !
बटुकेश्वर दत्त के खिलाफ गवाही देने वाले शोभा सिंह और शादी लाल थे . . . !
बटुकेश्वर दत्त जब आजीवन कारावास की सज़ा भुगत रहे थे तब गाँँधीजी के ही प्रयासों से बटुकेश्वर दत्त की 1938 में जेल से रिहाई हुई थी । फिर यही बटुकेश्वर दत्त 1942 में गाँँधीजी का अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हुए |
भगत सिंह के खिलाफ गवाही देने वाले , ना तो वो काँग्रेसी थे , ना तो वो गाँँधीवादी थे । वे दोनो भगत सिंह के क्रांतिकारी जोड़ीदार ” जय गोपाल और घोष बाबू ” थे !
बटुकेश्वर दत्त के खिलाफ गवाही देने वाले शोभा सिंह और शादी लाल थे . . . !
बटुकेश्वर दत्त जब आजीवन कारावास की सज़ा भुगत रहे थे तब गाँँधीजी के ही प्रयासों से बटुकेश्वर दत्त की 1938 में जेल से रिहाई हुई थी । फिर यही बटुकेश्वर दत्त 1942 में गाँँधीजी का अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हुए |
शुरुआत के दिनों में चन्द्रशेखर आज़ाद , भगत सिंह , राजगुरु ; इन तीनों क्रांतिकारियों में देश भक्ति की भावना गाँँधीजी के प्रभाव के कारण ही आई ।
फिर भी उस दुबले-पतले बूढ़े गाँँधी को इतनी गालियांँ ? ! !
फिर भी उस दुबले-पतले बूढ़े गाँँधी को इतनी गालियांँ ? ! !
जो लोग भगत सिंह के कंधे पर बंदूक रखकर गाँँधीजी को गालियांँ दे रहे हैं उन लोगों को भगत सिंह के गाँधीजी के सम्मान में लिखे हुए लेख बराबर पढ़ लेने चाहिए . . . .
यदि हिंसा से ही आजादी आती , तो 1857 में ही आजादी मिल जाती . . . .
क्योंकि जितना जान माल का नुकसान अंग्रेजों का भारतीयों ने 1857 के गद्दर में किया था उतना कभी किसी और आंदोलन में नही किया था ।
1857 में अंग्रेजों के मुद्दे पर सभी राजे रजवाड़े एक थे । किन्तु 1931 में ज़्यादातर राजे रजवाड़े अंग्रेजों के अंग बन चुके थे . . . .
गाँँधीजी की सोच थी की यदि हिंसा का मार्ग लोकप्रिय हो गया तो आने वाले आजाद भारत में भी अपनों से न्याय पाने के लिए लोग हिंसा का मार्ग ही चुनेंगे । अहिंसा कागज़ी बात बनकर रह जाएंगी ।
1857 में अंग्रेजों के मुद्दे पर सभी राजे रजवाड़े एक थे । किन्तु 1931 में ज़्यादातर राजे रजवाड़े अंग्रेजों के अंग बन चुके थे . . . .
गाँँधीजी की सोच थी की यदि हिंसा का मार्ग लोकप्रिय हो गया तो आने वाले आजाद भारत में भी अपनों से न्याय पाने के लिए लोग हिंसा का मार्ग ही चुनेंगे । अहिंसा कागज़ी बात बनकर रह जाएंगी ।
भगत सिंह और सुभाषचंद्र बोस का गाँँधीजी से हिंसा और अहिंसा को लेकर मतभेद था । बाकी वे दोनों ही गाँँधीजी का सम्मान करते थे । आजकल कुछ लोगों द्वारा गाँँधीजी v/s भगत सिंह बनाने की कोशिश हो रही है , वैसा खुद भगत सिंह भी नहीं करते थे । फरवरी 1931 में अपने एक लेख में भगत सिंह लिखते हैं की , गाँँधीजी ने मजदूरों को सत्याग्रह आंदोलन में भागीदार बनाकर गाँँधीजी ने मज़दूर क्रांति की नई शुरुआत कर दी है । क्रांतिकारियों को इस अहिंसा के फरिश्ते को उनका योग्य स्थान देना चाहिए ।
दूसरी बात भगत सिंह ने ये भी कही थी - " हिंसा अंतिम क्षण में इस्तमाल करने की चीज़ है , वर्ना अहिंसा के मार्ग से ही क्रांति लाई जानी चाहिए ।". . . . ये थी शहीदे आज़म भगत सिंह की वाणी . . . .
यदि गाँँधीजी के मन में कोई खोट होती तो फांसी के तीन दिन बाद काँग्रेस अधिवेशन में भगत सिंह जी के पिता सरदार किशनसिंहजी और सुखदेव जी के भाई मधुरादासजी गाँँधीजी को मिलने क्यों आते ?
फांसी के बाद भगत सिंह जी ने तो गाँधीजी के लिए कोई संदेश नही छोड़ा, मगर सुखदेव जी ने गाँँधीजी के नाम ज़रुर एक चिठ्ठी लिखी थी |
उस चिठ्ठी की शुरुआत करते हुए सुखदेव जी ने लिखा था ” आदरणीय महात्माजी ”
सुखदेव जी की चिठ्ठी गाँँधीजी के प्रति थोड़ी नाराज़गी भरी थी लेकीन उस चिठ्ठी का सार कोई समझ नही पा रहा था तब गाँँधीजी अपनी जगह से उठकर चिठ्ठी अपने हाथ में लेकर वहां बैठे लोगों को समझाते हुए कहा की ये बच्चा चिठ्ठी के ज़रिए ये कहना चाहता है कि मैंने उन्हे फांसी से बचाने का उचित प्रयास नही किया . . . . गाँँधीजी का मनोबल इतना मजबुत था की उन्होने सुखदेव जी की ये चिठ्ठी दुसरे दिन यंग इंडिया अखबार के पहले पन्ने पर छपवाई . . . .
दूसरी बात भगत सिंह ने ये भी कही थी - " हिंसा अंतिम क्षण में इस्तमाल करने की चीज़ है , वर्ना अहिंसा के मार्ग से ही क्रांति लाई जानी चाहिए ।". . . . ये थी शहीदे आज़म भगत सिंह की वाणी . . . .
यदि गाँँधीजी के मन में कोई खोट होती तो फांसी के तीन दिन बाद काँग्रेस अधिवेशन में भगत सिंह जी के पिता सरदार किशनसिंहजी और सुखदेव जी के भाई मधुरादासजी गाँँधीजी को मिलने क्यों आते ?
फांसी के बाद भगत सिंह जी ने तो गाँधीजी के लिए कोई संदेश नही छोड़ा, मगर सुखदेव जी ने गाँँधीजी के नाम ज़रुर एक चिठ्ठी लिखी थी |
उस चिठ्ठी की शुरुआत करते हुए सुखदेव जी ने लिखा था ” आदरणीय महात्माजी ”
सुखदेव जी की चिठ्ठी गाँँधीजी के प्रति थोड़ी नाराज़गी भरी थी लेकीन उस चिठ्ठी का सार कोई समझ नही पा रहा था तब गाँँधीजी अपनी जगह से उठकर चिठ्ठी अपने हाथ में लेकर वहां बैठे लोगों को समझाते हुए कहा की ये बच्चा चिठ्ठी के ज़रिए ये कहना चाहता है कि मैंने उन्हे फांसी से बचाने का उचित प्रयास नही किया . . . . गाँँधीजी का मनोबल इतना मजबुत था की उन्होने सुखदेव जी की ये चिठ्ठी दुसरे दिन यंग इंडिया अखबार के पहले पन्ने पर छपवाई . . . .
गाँँधीजी वो विभुती थे जो प्यार से मिली हुई चीज़ के साथ साथ नफरत से मिली भेंट भी विनम्रतापूर्वक स्वीकार कर लेते थे | अधिवेशन में पहुचने के पहले कुछ लोगों ने भगत सिंह के समर्थन में और गाँँधीजी के खिलाफ नारे लगाए ,उन्हे कपड़े की बनावट के काले फूल दिए गए ।गाँँधीजी ने वो नफरत रुपी काले फूल सहज भाव से स्वीकारते हुए अपने आश्रम भेज दिए |
इस घटना को ध्यान में रखते हुए पार्टी ने गाँँधीजी को सुरक्षा देने का फैसला किया , मगर बुराई में भी अच्छाई देखने वाले गाँँधीजी ने ये कहते हुए सुरक्षा लेने से इंकार कर दिया कि , उन नौजवानों का विरोध बहुत ही संयमित था । वे चाहते तो मुझ पर हिंसा कर सकते थे, कपड़े के काले फूल मेरे मुंह पर फेंक कर मेरा अपमान कर सकते थे , लेकिन उन नौजवानों ने मेरे साथ ऐसी कोई हरकत नही की जिससे मुझे सुरक्षा लेनी पड़े |
इस घटना को ध्यान में रखते हुए पार्टी ने गाँँधीजी को सुरक्षा देने का फैसला किया , मगर बुराई में भी अच्छाई देखने वाले गाँँधीजी ने ये कहते हुए सुरक्षा लेने से इंकार कर दिया कि , उन नौजवानों का विरोध बहुत ही संयमित था । वे चाहते तो मुझ पर हिंसा कर सकते थे, कपड़े के काले फूल मेरे मुंह पर फेंक कर मेरा अपमान कर सकते थे , लेकिन उन नौजवानों ने मेरे साथ ऐसी कोई हरकत नही की जिससे मुझे सुरक्षा लेनी पड़े |
नेताजी सुभाषचंद्रने जब आज़ाद हिंद सेना बनाई तब उस सेना की पहली टुकड़ी का नाम गाँँधी ब्रिगेड रखा था ।
जब नेताजी को अपने साथी ने कहा , आजादी मिलने के बाद हम क्या करेंगे ? नेताजी ने उत्तर दिया , हम गाँँधीजी की तरह दीन दुखियों की सेवा करेंगे । गाँँधीजी को सबसे पहले राष्ट्रपिता सुभाषचंद्र जी ने ही कहा था ।
जिन देश भक्तों ने देश के लिए अपनी जान दी , वे भी कभी गाँधीजी को कटू वचन नही बोले , मगर जिन लोगों ने देश के लिए अपना नाख़ून तक नही कटवाया वो लोग आज गाँँधीजी को गालियाँँ देते हैं ! ! ! !
समझ में नही आता कौन-सा धर्म इंसान को गालियाँँ देना सिखाता है ?
जिन देश भक्तों ने देश के लिए अपनी जान दी , वे भी कभी गाँधीजी को कटू वचन नही बोले , मगर जिन लोगों ने देश के लिए अपना नाख़ून तक नही कटवाया वो लोग आज गाँँधीजी को गालियाँँ देते हैं ! ! ! !
समझ में नही आता कौन-सा धर्म इंसान को गालियाँँ देना सिखाता है ?
जो व्यक्ति लोगों को श्री राम जैसी मर्यादा सिखाता हो , श्री कृष्ण जैसा प्रेम करना सिखाता हो , हरीशचन्द्र जैसी सत्यता सिखाता हो , बुद्ध और महावीर की तरह अहिंसा का पालन करना सिखाता हो । क्या वो व्यक्ति किसी क्रांतिकारी को मरवा सकता है ?
जो व्यक्ति अपने भजनों में ये गाता फिरता हो , ” पर दुःखे उपकार करे तो , मन अभिमान ना आवे रे ” उस पर अपनी लोकप्रियता बचाने का आरोप ?
गाँँधीजी जाति से वैष्णव थे ।
इसीलिए वे कहते थे , वैष्णव जन उसे कहते है , जो पीड़ा पराई जानता है ।
इसीलिए वे कहते थे , वैष्णव जन उसे कहते है , जो पीड़ा पराई जानता है ।
किन्तु भारत जैसा आध्यात्मिक देश गाँँधी जैसे सत्यवादी का सत्य जानने में नाकाम रहा . . . . !
🙏 🌸 भगत सिंह जी , सुखदेव जी , राजगुरु जी की शहादत को शत शत नमन 🌸 🙏
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